छिंदवाड़ा. जिला मुख्यालय छिंदवाड़ा से 78 किमी दूर सतपुड़ा की पहाडि़यों के बीच जमीन के 1700 फीट नीचे बसा है पातालकोट। यह समुद्र तल से 2750- 3250 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थान 79 वर्ग किमी में फैला हुआ है। पातालकोट आदिवासियों की एक अलग दुनिया वाले 12 गांवों का समूह। अपनी संस्कृति, इतिहास और भौगोलिक स्थिति से इसकी वैश्विक नक्शे में अलग पहचान है तो वहीं दिन में भी रात का एहसास कराने वाला यह क्षेत्र जगप्रसिद्ध है।

प्राकृतिक दृश्यावली के कारण यह बहुत मनमोहक है। पाताल से अर्थ इसका एक गहराई में बसा होना है। इसके मुहाने पर ऊपर बैठ कर जब नीचे झांका जाता है, तो इसका आकार एक घोड़े की नाल जैसा नजर आता है। ऐसी जनश्रुति है कि यह पाताल लोक जाने का दरवाजा है। एक समय यहां के आदिवासी बाहरी दुनिया से दूर थे, लेकिन अब सरकारी प्रयासों से वे समाज की मुख्य धारा में शामिल हो गए हैं।

पौराणिक मान्यता हैं कि इस स्थान से रामायण के पात्र रावण का पुत्र मेघनाथ, भगवान शिव की आराधना कर पाताललोक में गया था। यह इलाका जड़ी-बूटियों के लिए भी जाना जाता है। पातालकोट के 12 गांव गैलडुब्बा, कारेआम, रातेड़, घटलिंगा-गुढ़ीछत्री, घाना कोडिय़ा, चिमटीपुर, जड़-मांदल, घर्राकछार, खमारपुर, शेरपंचगेल, सुखाभंड-हरमुहुभंजलाम और मालती-डोमिनी है, जहां एक समय जाना मुश्किल था। अब इसे पक्की सड़क से जोड़ दिया गया है। यहां की आबादी भारिया और गौंड आदिवासी समुदाय की हैं, जो अभी भी काफी हद तक प्राकृतिक व्यवस्थाओं पर आश्रित हैं।

कहा जाता है कि इस जनजाति के लोग इस स्थान पर पिछले 500 वर्षों से निवास कर रहे है। यह स्थान प्राकृतिक रूप से एक गहरी गर्त का किला-सा बन गया है। इसकी तलहटी से आसपास की पर्वत श्रेणियां करीब 1200 फीट ऊंची हैं। इसके पाास से ही दूधी नदी बहती है। वर्तमान में नीचे जाने के मार्ग बना दिए गए हैं। इसके पूर्व यहां लोग लताओं , बेलाओं तथा पेड़ पौधों को पकड़ कर नीचे और ऊपर आया जाया करते थे। यह स्थान अपनी अमूल्य जड़ी- बूटियों के लिए विख्यात है। यहां रहने वाले आदिवासी इन्ही जड़ी बूटियों से अपने कष्टों का निवारण करते हैं।

पातालकोट के गांव कुछ दशक पहले तक रहस्य समेटे हुए थे। और
पातालकोट की सबसे खास बात यह है कि जमीन से नीचे होने और सतपुड़ा की पहाडि़यों से घिरा होने से इसके काफी हिस्से में रोशनी नहीं पहुंचती है और पाताल जैसा अहसास होता है

प्राकृतिक दृश्यावली के कारण यह बहुत मनमोहक है। पाताल से अर्थ इसका एक गहराई में बसा होना है। इसके मुहाने पर ऊपर बैठ कर जब नीचे झांका जाता है, तो इसका आकार एक घोड़े की नाल जैसा नजर आता है। ऐसी जनश्रुति है कि यह पाताल लोक जाने का दरवाजा है। एक समय यहां के आदिवासी बाहरी दुनिया से दूर थे, लेकिन अब सरकारी प्रयासों से वे समाज की मुख्य धारा में शामिल हो गए हैं।

पौराणिक मान्यता हैं कि इस स्थान से रामायण के पात्र रावण का पुत्र मेघनाथ, भगवान शिव की आराधना कर पाताललोक में गया था। यह इलाका जड़ी-बूटियों के लिए भी जाना जाता है। पातालकोट के 12 गांव गैलडुब्बा, कारेआम, रातेड़, घटलिंगा-गुढ़ीछत्री, घाना कोडिय़ा, चिमटीपुर, जड़-मांदल, घर्राकछार, खमारपुर, शेरपंचगेल, सुखाभंड-हरमुहुभंजलाम और मालती-डोमिनी है, जहां एक समय जाना मुश्किल था। अब इसे पक्की सड़क से जोड़ दिया गया है। यहां की आबादी भारिया और गौंड आदिवासी समुदाय की हैं, जो अभी भी काफी हद तक प्राकृतिक व्यवस्थाओं पर आश्रित हैं।

कहा जाता है कि इस जनजाति के लोग इस स्थान पर पिछले 500 वर्षों से निवास कर रहे है। यह स्थान प्राकृतिक रूप से एक गहरी गर्त का किला-सा बन गया है। इसकी तलहटी से आसपास की पर्वत श्रेणियां करीब 1200 फीट ऊंची हैं। इसके पाास से ही दूधी नदी बहती है। वर्तमान में नीचे जाने के मार्ग बना दिए गए हैं। इसके पूर्व यहां लोग लताओं , बेलाओं तथा पेड़ पौधों को पकड़ कर नीचे और ऊपर आया जाया करते थे। यह स्थान अपनी अमूल्य जड़ी- बूटियों के लिए विख्यात है। यहां रहने वाले आदिवासी इन्ही जड़ी बूटियों से अपने कष्टों का निवारण करते हैं।

पातालकोट के गांव कुछ दशक पहले तक रहस्य समेटे हुए थे। और
पातालकोट की सबसे खास बात यह है कि जमीन से नीचे होने और सतपुड़ा की पहाडि़यों से घिरा होने से इसके काफी हिस्से में रोशनी नहीं पहुंचती है और पाताल जैसा अहसास होता है
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