• 4 years ago
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हमारे देश की खासियत है कि हर घटना को यहां राजनीतिक चश्मे से जरूर देखा जाता है। जैसे अभी हालिया कोरोना वाईरस से सभी त्रस्त चल रहे है। लेकिन कोरोना भी भारत में राजनीति से बच नही पाया। कोरोना की तैयारियों को लेकर विपक्ष सरकार पर उंगली उठा रहा है तो सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है। लेकिन कोरोना के विश्वव्यापी खतरे के बीच हम सब फंसे हुए है ये एक सच्चाई है।

मध्यप्रदेश में भी बाकी राज्यों की तरह स्कूल और सिनेमाघर बंद कर दिए गए है। लेकिन यहां की सरकार ने कोरोना का भी राजनीतिक इस्तेमाल कर लिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़कर जाने से पैदा हुए सत्ता के संग्राम में मुख्यमंत्री कमलनाथ की कुर्सी जानी तय थी। आज ही विधानसभा में बहुमत परीक्षण होना था जिसमें सरकार का गिरना तय था। इन अवश्यम्भावी परिस्थितियों को कांग्रेस ने समझ लिया था और इसीलिए कोरोना का नाम लेकर विधानसभा को कुछ दिन के लिए भंग कर दिया गया।

जो विधायक इस 'वजन' के तले दब जाएंगे वो इसे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ बता देंगे और जो नही दबेंगे वो शायद और ज्यादा 'वजन' की उम्मीद कर रहे होंगे। लेकिन ये बात तो साफ हो रही है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की औकात 2 कौड़ी से ज्यादा नही है। "जिधर दम-उधर हम" के अलावा इनके पास न कोई विचारधारा है और न कोई नैतिक मूल्य। ये भी विडंबना ही है कि इस बेशर्म राजनीति का खेल जो पार्टी जीत लेगी वही प्रदेश की सत्ता पर काबिज हो जाएगी। जनता द्वारा, जनता के लिए चुनी हुई सरकार का ध्यान फिलहाल विधायक खरीदने और सत्ता के जुगाड़ में लगा हुआ है।

पहले विधायकों की सेवा होंगी और उसके बाद सोचा जाएगा कि जनता के लिए फंड बचा है या नही? इन सबके बीच जनता सोच रही है कि जो पार्टियां अपने विधायक नही सम्हाल पा रही वो प्रदेश को कैसे सम्हालेंगी? कमलनाथ ने कोरोना का बहाना बनाकर हाल-फिलहाल का संकट तो टाल दिया है लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खेर मनाएगी? ये लड़ाई कांग्रेस बनाम भाजपा नही रह गयी है अब ये लड़ाई कमलनाथ, दिग्विजयसिंह और कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व बनाम ज्योतिरादित्य सिंधिया की बन गयी है। महाराज कांग्रेस छोड़कर आये है तो कुछ सोचकर, जुगाड़ लगाकर ही आये है।

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