जिस प्रकार आँखे, कान बिना बताए अपना कार्य करते रहते है, उसी प्रकार आत्मा को क्यों हम अपने आप स्वाभाविक तरह से नहीं समज पाते? आत्मा को जानने और समझने के लिए किन चीजों की महत्त्वता रही है?
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00:00मैं एक शाष्वततप्पाप्मा।
00:04हाँ! आपने सही सुना।
00:07मैं एक शाष्वतत्पप्पाप्मा हू।
00:10मैं हूँ, तो इस देह का वजूद है।
00:14और इस में से निकल जाऊँ,
00:16तो कुछ गाम का नहीं ही, हे देह।
00:19हाँ, मैं चन्म और मृत्यों सिपर हुं.
00:23मैं अनन्त ज्ञान वाला हूँ, मैं अनन्त शक्ति वाला हूं
00:29और एसी, कितनी ही शक्तियाँ है मुझ्में.
00:33पर यह सब जानने और अनुभव करने के है,
00:37जाने क्यों इतने साल, इतने सद्यां और इतने योग भी जाते हैं।
00:44आँख को कभी बताना नहीं पड़ता कि तू आँख है, तेरा काम देखना है।
00:50कान को नहीं बताना पड़ता कि तेरा काम सुनना है।
00:53तो मैं आत्मा हूँ इस बात को समझने के लिए अनंत जनन लग जाते हैं।
01:01और ये स्वभाविक तरीके से क्यों नहीं होता कि हम बैदा होते हैं तो हम ये समझ के आते हैं कि मैं आत्मा हूँ।
01:12उसको नहीं हो, ये एक मिल से अंड्रेट मिल तक रहता है, तो फ़र्स्ट मिल वाले को कितना भी बोलो नहीं हो, उसको 95 पे आया उसको ही फिट होगा आत्मा की बात।
01:23तो आत्मा का अशुद्ध ज्ञान है, बाद में अशुब ज्ञान है, शुब ज्ञान है और शुद्ध ज्ञान है, तो आत्मा का अशुद्ध ज्ञान है, बाद में अशुब ज्ञान है, शुब ज्ञान है और शुद्ध ज्ञान है, तो आत्मा का अशुब ज्ञान ह
01:53है, तो अशुद्ध ज्ञान में मारेगा, अहिंसा करेगा, खतम करेगा, करते करते बहुत अनुभोग आए गलत है, तो अशुब ज्ञान में आएगा, अशुब ज्ञान में अभी अनुभोग लेके आएगा, कि नहीं ये भी गलत है, शुब ज्ञान में आएगा, लोगों
02:23में आएगा, और संजव के निमीद से, अनुभोग के आधार से, और खुद तो आत्मा मुक्त ही रहा है, उसको ज्ञान से बटकता है, ज्ञान से मुक्ति पाता है, और गुब्रती है।