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वीडियो जानकारी: 30.09.23, गीता समागम, ग्रेटर नॉएडा
विवरण:
इस वीडियो में आचार्य जी ने जीवन में झुकने और अडिग रहने के महत्व पर चर्चा की है। उन्होंने बताया कि जीवन में कई बार हमें रुकना पड़ सकता है, लेकिन झुकना नहीं चाहिए। उन्होंने उदाहरणों के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि अहंकार और असूया (ईर्ष्या) कैसे हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। असूया का अर्थ है आत्मा के समकक्ष खुद को मानना, जो कि गलत है। आचार्य जी ने कहा कि हमें अपनी सीमाओं को समझना चाहिए और यह स्वीकार करना चाहिए कि हम अधूरे हैं।
उन्होंने यह भी बताया कि श्रद्धा और निष्काम कर्म का महत्व है। श्रद्धा का अर्थ है बिना किसी परिणाम की चिंता किए कर्म करना। आचार्य जी ने यह भी कहा कि जीवन में कुछ भी आवश्यक नहीं है, केवल आत्मा की खोज आवश्यक है। उन्होंने बताया कि हमें अपने जीवन के निर्णय खुद लेने चाहिए और समाज के दबाव में नहीं आना चाहिए।
आचार्य जी ने अंत में यह कहा कि हमें अपने जीवन को अपने तरीके से जीना चाहिए, बिना किसी डर या संकोच के। हमें अपने कर्मों पर विश्वास रखना चाहिए और जो भी होगा, उसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
प्रसंग:
- असूया : अहंकार द्वारा स्वयं को आत्मा के समतुल्य या समकक्ष समझना।
- गीता किसके लिए है?
- इतनी सारी कामनाओं का होना क्या दिखाता है?
- क्यों कृष्ण को सुनने से पहले मानना पड़ेगा कि हम अधूरे है?
- श्रद्धा और निष्काम कर्म का क्या अर्थ है?
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 31
अर्थ:
जो लोग श्रद्धायुक्त और ईर्ष्या-रहित होकर मेरे इस मत का सदा पालन करते हैं, वे भी कर्म-बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
सत्य में रख श्रद्धा अपार
नमित करके अंहकार
गीता की गुनकर के बात
आ मुक्त हो भवबंध काट
~ आचार्य प्रशांत द्वारा सरल काव्यात्मक अर्थ
संगीत: मिलिंद दाते
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#acharyaprashant
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इस वीडियो में आचार्य जी ने जीवन में झुकने और अडिग रहने के महत्व पर चर्चा की है। उन्होंने बताया कि जीवन में कई बार हमें रुकना पड़ सकता है, लेकिन झुकना नहीं चाहिए। उन्होंने उदाहरणों के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि अहंकार और असूया (ईर्ष्या) कैसे हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। असूया का अर्थ है आत्मा के समकक्ष खुद को मानना, जो कि गलत है। आचार्य जी ने कहा कि हमें अपनी सीमाओं को समझना चाहिए और यह स्वीकार करना चाहिए कि हम अधूरे हैं।
उन्होंने यह भी बताया कि श्रद्धा और निष्काम कर्म का महत्व है। श्रद्धा का अर्थ है बिना किसी परिणाम की चिंता किए कर्म करना। आचार्य जी ने यह भी कहा कि जीवन में कुछ भी आवश्यक नहीं है, केवल आत्मा की खोज आवश्यक है। उन्होंने बताया कि हमें अपने जीवन के निर्णय खुद लेने चाहिए और समाज के दबाव में नहीं आना चाहिए।
आचार्य जी ने अंत में यह कहा कि हमें अपने जीवन को अपने तरीके से जीना चाहिए, बिना किसी डर या संकोच के। हमें अपने कर्मों पर विश्वास रखना चाहिए और जो भी होगा, उसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
प्रसंग:
- असूया : अहंकार द्वारा स्वयं को आत्मा के समतुल्य या समकक्ष समझना।
- गीता किसके लिए है?
- इतनी सारी कामनाओं का होना क्या दिखाता है?
- क्यों कृष्ण को सुनने से पहले मानना पड़ेगा कि हम अधूरे है?
- श्रद्धा और निष्काम कर्म का क्या अर्थ है?
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 31
अर्थ:
जो लोग श्रद्धायुक्त और ईर्ष्या-रहित होकर मेरे इस मत का सदा पालन करते हैं, वे भी कर्म-बंधन से मुक्त हो जाते हैं।
सत्य में रख श्रद्धा अपार
नमित करके अंहकार
गीता की गुनकर के बात
आ मुक्त हो भवबंध काट
~ आचार्य प्रशांत द्वारा सरल काव्यात्मक अर्थ
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