निर्भया मामले में सामने आयी एक खबर ने बुरी तरह चौंका दिया। खबर ये थी कि निर्भया के दोषी फांसी के बचने के लिए इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में अर्जी दाखिल कर रहे है। इस अंतरराष्ट्रीय अदालत के बारे में भारत के जनसमान्य को पहली बार तब पता चला जब पाकिस्तान जैल में बंद कुलभूषण मामले में भारत ने पाकिस्तान को इस कोर्ट ने धूल चटाई थी। इस मामले में भारत की पैरवी करने वाले वकील हरीश सालवी ने मात्र 1 रुपया फीस लेकर ये केस लड़ा था और भारत को जिताया भी।
भारत मे दो बातें अक्सर कही जाती है। पहली ये की आतंक का कोई मजहब नही होता और दूसरी ये की न्याय सभी के लिए समान है। लेकिन सच्चाई ये है कि दोनों ही बातें सरासर झूठ है। आज न्याय की बात कर लेतें है कि क्या वाकई ये सभी के लिए एकसमान है? भारत के सुप्रीम कोर्ट में कोई केस लड़ना कोई मज़ाक नही है। देश का आम आदमी इस सर्वोच्च अदालत की चौखट तक भी कभी नही पहुंच सकता। यहां के वकील इतने महंगे है कि एक ही सुनवाई में आदमी के घरबार बिक जाएं।
लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि निर्भया के दोषी जो कि गरीब परिवारों से आतें है उनके लिए करोड़ो रुपया कौन खर्च कर रहा है? सुप्रीम कोर्ट में इतने साल तक केस लड़ने के लिए कौन इनकी पर्दे के पीछे से मदद कर रहा है? ये कौन शक्तियां है जो नही चाहती कि भारत मे बलात्कारियों को कभी फांसी हो जिससें महिलाएं सुरक्षित हो सके। इंटरनेशनल कोर्ट में मामला ले जाना इतना आसान नही है। ये करोड़ो रूपये कौन इन गरीबो के लिए खर्च कर रहा है?
उत्तरप्रदेश में दंगाइयों की तस्वीरें सार्वजनिक करने पर स्वतः संज्ञान लेने वाली कोर्ट को क्या ये सब दिखाई नही देता? आर्थिक धोखाधड़ी की जांच करने वाली एजेंसियों को भी इन दिशा में नही ध्यान देना चाहिए? बलात्कारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने वाली ताकतें आखिर चाहती क्या है? देश की सुप्रीम कोर्ट किसी गिरोह के चंगुल में तो नही फंस गई है क्योंकि यहां आम आदमी की तो कोई सुनवाई है नही जबकि आतंकवादियों के लिये आधी रात को भी कोर्ट खोल दी जाती है?
होना ये चाहिये था कि निर्भया जैसे चर्चित मामले में तुरन्त दोषियो को फांसी होती जिससे बलात्कारियों को एक सबक मिलता। लेकिन हो इसका ठीक उल्टा रहा है। निर्भया के मामले से देश के अपराधियों को ये संदेश जा रहा है की जब इतने चर्चित मामले में दोषियो को फांसी नही दी जा रही तो देश के सुदूर हिस्सो में होने वाले महिला अपराधों पर शायद ही किसी के कानों पर जूं भी रेंगेगी? उन अभागी महिलाओ के लिए तो कोई एक मोमबत्ती भी नही जलाने वाला।
हमारी न्याय व्यवस्था की स्थिति वाकई चिंताजनक हो चुकी है। निर्भया मामले ने देश के अदालतों पर जनता के भरोसे को खोखला कर दिया है। हमे न जाने क्यों ये समझ नही आता की बेटी बचाओ के नारे लगाने से बेटियां नही बचने वाली, इन हैवानों को फांसी पर लटकाकर ही बेटियों को बचाया जा सकता है। ऐसे हालातो में कभी-कभी लगने लगता है कि इस देश मे लड़की होना ही कोई गुनाह तो नही है..???
भारत मे दो बातें अक्सर कही जाती है। पहली ये की आतंक का कोई मजहब नही होता और दूसरी ये की न्याय सभी के लिए समान है। लेकिन सच्चाई ये है कि दोनों ही बातें सरासर झूठ है। आज न्याय की बात कर लेतें है कि क्या वाकई ये सभी के लिए एकसमान है? भारत के सुप्रीम कोर्ट में कोई केस लड़ना कोई मज़ाक नही है। देश का आम आदमी इस सर्वोच्च अदालत की चौखट तक भी कभी नही पहुंच सकता। यहां के वकील इतने महंगे है कि एक ही सुनवाई में आदमी के घरबार बिक जाएं।
लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि निर्भया के दोषी जो कि गरीब परिवारों से आतें है उनके लिए करोड़ो रुपया कौन खर्च कर रहा है? सुप्रीम कोर्ट में इतने साल तक केस लड़ने के लिए कौन इनकी पर्दे के पीछे से मदद कर रहा है? ये कौन शक्तियां है जो नही चाहती कि भारत मे बलात्कारियों को कभी फांसी हो जिससें महिलाएं सुरक्षित हो सके। इंटरनेशनल कोर्ट में मामला ले जाना इतना आसान नही है। ये करोड़ो रूपये कौन इन गरीबो के लिए खर्च कर रहा है?
उत्तरप्रदेश में दंगाइयों की तस्वीरें सार्वजनिक करने पर स्वतः संज्ञान लेने वाली कोर्ट को क्या ये सब दिखाई नही देता? आर्थिक धोखाधड़ी की जांच करने वाली एजेंसियों को भी इन दिशा में नही ध्यान देना चाहिए? बलात्कारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने वाली ताकतें आखिर चाहती क्या है? देश की सुप्रीम कोर्ट किसी गिरोह के चंगुल में तो नही फंस गई है क्योंकि यहां आम आदमी की तो कोई सुनवाई है नही जबकि आतंकवादियों के लिये आधी रात को भी कोर्ट खोल दी जाती है?
होना ये चाहिये था कि निर्भया जैसे चर्चित मामले में तुरन्त दोषियो को फांसी होती जिससे बलात्कारियों को एक सबक मिलता। लेकिन हो इसका ठीक उल्टा रहा है। निर्भया के मामले से देश के अपराधियों को ये संदेश जा रहा है की जब इतने चर्चित मामले में दोषियो को फांसी नही दी जा रही तो देश के सुदूर हिस्सो में होने वाले महिला अपराधों पर शायद ही किसी के कानों पर जूं भी रेंगेगी? उन अभागी महिलाओ के लिए तो कोई एक मोमबत्ती भी नही जलाने वाला।
हमारी न्याय व्यवस्था की स्थिति वाकई चिंताजनक हो चुकी है। निर्भया मामले ने देश के अदालतों पर जनता के भरोसे को खोखला कर दिया है। हमे न जाने क्यों ये समझ नही आता की बेटी बचाओ के नारे लगाने से बेटियां नही बचने वाली, इन हैवानों को फांसी पर लटकाकर ही बेटियों को बचाया जा सकता है। ऐसे हालातो में कभी-कभी लगने लगता है कि इस देश मे लड़की होना ही कोई गुनाह तो नही है..???
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