• 6 years ago
मैं लक्ष्मण। जो अपने लक्ष्य पर सदा केंद्रित रहे, उसे लक्ष्मण कहा जाता है। मेरा एक ही लक्ष्य भ्राता राम की सेवा, उनके चरणों का अनुगमन। राम की सेवा और साथ ही मेरा तप है। मेरे तप में सहभागिनी है उर्मिला। जिसके साथ विवाह की डोर में बंधा, उसने अपने त्याग और प्रेम का वो उदाहरण दिया जो किसी नारी के लिए संभव नहीं। राम सेवा में कोई विघ्न ना हो इसलिए वो मुझे वनवास में अकेले आने पर सहमत हुई, खुद अपने लिए 14 वर्ष का विरह ओढ़ लिया। मेरा मन सदा राम के चरणों में है लेकिन हृदय का एक कोना उर्मिला के प्रति स्नेह और आभार से पूर्ण है। 

 

भ्राता भरत चित्रकुट आए तो अयोध्या की सेना और प्रजा के कारण यहां की शांति भंग हो गई। भ्राता राम ने निर्णय लिया, चित्रकुट छोड़ना होगा। कहीं दूर ऐसी जगह जाना होगा, जहां अयोध्यावासियों का आना कठिन हो, अन्यथा नियमित ही यहां कोई ना कोई आता रहेगा। हम चित्रकुट त्याग कर चल दिए। एक ऋषि से दूसरे ऋषि के आश्रम होते हुए। कई नगरों की सीमाओं को छूते हुए आगे बढ़ रहे थे। कुछ ऋषियों ने सुझाया गोदावरी के तट पर पंचवटी नाम का सुरम्य स्थान है। वो दंडकारण्य की सीमा है। वहां कई तपस्वी रहते हैं। जो दंडकारण्य के राक्षसों से पीड़ित है। भ्राता राम ने निर्णय लिया, हम पंचवटी में आ गए। सुंदर जगह पर कुटिया बनाई। नित्य ऋषियों का आना और आश्रमों में ज्ञान चर्चा के लिए जाना, ये सौभाग्य था। 

 

समय बीतता जा रहा था। पंचवटी में हम ऐसे रम गए जैसे यहीं के थे। कुटिया में भी महलों सा सुख था। सबसे बड़ा सुख भ्राता राम की चरण सेवा। फिर एक दिन एक मायावी स्त्री आश्रम के निकट आई। भ्राता राम से विवाह की मांग की। भ्राता ने मना किया। तो वो मेरे पास आई। मैंने भी उसे लौटा दिया। वो अपने अपमान से क्रोधित हो गई। अपने वास्तविक रुप में आ गई। ये तो राक्षसी शूर्पणखा थी। उसने माता सीता पर वार करने की कोशिश की, मैंने क्रोध में अपनी कटार से उसकी नासिका काट दी। पूरे दंडकारण्य में हाहाकार मच गया। वो रोती-बिलखती लौट गई। 

 

कुछ समय ही गुजरा था कि भयंकर स्वर सुनाई देने लगे। मानो कोई पूरी सेना लेकर आ रहा है। ये खर और दूषण की सेना थी। शूर्पणखा के भाई। और उनकी सेना। पूरे 14 हजार राक्षसों की सेना। भ्राता राम शांत, धीर, गंभीर देख रहे थे। मैंने उन्हें उनके शस्त्र दिए। खुद अपना धनुष उठाया। भ्राता ने आज्ञा दी, लक्ष्मण तुम सीता की रक्षा करो। मैं राक्षसों से लड़ता हूं। मैंने कहा भैया आप अकेले हैं, वो हजारों। भैया ने कहा तुम सिर्फ सीता की रक्षा करो। अकेले भैया राम ने 14 हजार राक्षसों की सेना के साथ युद्ध किया। खर-दूषण जो दंडकारण्य के शासक थे, लंकापति रावण के भाई थे। उनको भी मार दिया। 

 

हाहाकार थम गया। सब पहले सा शांत हो गया। इस युद्ध से दंडकारण्य में कुछ समय के लिए राक्षसों का भय समाप्त सा हो गया। कई ऋषियों और महात्माओं ने चेताया। खर-दूषण लंकापति रावण के भाई हैं, उनका वध करना लंका के राज्य को चुनौती देने जैसा है। आपको सतर्क रहना होगा। हम सावधान हो गए। अधिक सतर्कता से रहने लगे। 

 

हमारी मुख्य जिम्मेदारी माता सीता की रक्षा थी। लेकिन, कुछ दिन बीत गए। कोई प्रतिक्रिया दिखाई नहीं दी। सब जैसे शांत सा ही था। मैं कुटिया के पहरे पर था। भ्राता संध्या पूजन की तैयारी कर रहे थे, माता सीता उनके लिए पुष्प चुन रही थी। तभी कुछ हलचल सी हुई। एक हिरणों का झूंड कुटिया के पास से होता गुजरा। उसमें एक स्वर्ण सा चमकीला हिरण था। स्वर्ण मृग। देखते ही मन मोह लेने वाला। माता सीता ने अपने स्वामी से कहा, ये मृग कितना मोहक है, इसे पकड़ लाइए। इसे हम पालकर रखेंगे और जब अयोध्या लौटेंगे तो इसे साथ ले जाएंगे। ये कोई दुर्लभ मृग जान पड़ता है। स्वर्ण सी काया वाला मृग...

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